Wednesday, December 24, 2008

मुंहजोड नींद

नींद भूल सा गई है रास्ता मेरे दरवाजे तक का. जाने किस गली गुम हो गई है? किस चौखट डेरा जमाये हुए है? जाने किस विचार ने रोक रखा है उसे मेरे पास आने से? वैसे सुना है विचार सौत है नींद की. नींद हुई महबूबा हो गई. मुझे याद है मैं रिषिकेश गया था और एक गुरुजी सन्त श्रीहरि ने कहा था. "जब तक तुम्हारे दिमाग में विचार चलते है, नींद को दिक्कत होती है अपने लिये जगह बनाने में." आजकल नींद महबूबा सी हो गई है". मिन्नतों, करवटों के बाद भी चादर उठा के देखती नहीं कि आंखें उसी की राह ताक रही है. बिस्तर पे जाके कुलबुलाता रहता हूं. देर तक नींद का कोई अता पता नहीं मिलता. करवटों की अदला बदली भी उसे नहीं खींच पाती खाट पर. क्या पता कमरे में रखे कुर्सी या बैग के किसी खांचे में बैठे इन्तजार कर रही हो अपनी सौत के जाने का. या तकिये के ठीक बगल में बैठे तमाशा देख रही हो मेरी बेचैनी का. या नींद आती ही नहीं मेरे पते तक. वैसे नींद का अपना पता क्या होता होगा? नींद, C-10, 1st floor, katwariya sarai, या नींद, M-B-84, Shakarpur या कुछ और? शक्ल कैसी होगी?, कैसी दिखती होगी? गोरी, सांवली, काली, मोटी सी कद्दू जैसी, बेलनाकार, सूखे जैसी या बारिश की फुहारों सी. अनारकली सी या फिर बालीवुड की किसी हीरोईन माफिक. कुछ तो अस्तित्व होता होगा! कभी मिले किसी चाट-पकौडे की दूकान पे या नज़र आये किसी पार्क में, सरसों के खेत मे, साऊथ एक्स में हबीब के सलून में, साहिबाबाद में राजीव के घर या हिन्दू कालेज में तो पकड के बिठा लूं. उतार लूं दो-चार फोटू और काट के रख लूं बटूये में. एक लगा दूं कमरे में गणेश जी के ठीक बगल में. सुबह उठके, नहा धोके गणेश जी के बहाने उसकी भी आरती उतार लूं. थोडी चन्दन भी मल दूं उसके माथे पर. नींद खुश रहे बस. शहर में वैसे भी नींद दवाओं की मोह्ताज हो गई है. मल्टीनेशनल कंपनी वालों ने कुछ नींदों को पकडके पुडियों की शक्ल में बेचने लगी है. जैसी नींद, जितनी नींद उतनी पुडिया. कहीं मेरे हिस्से की नींद भी उनका शिकार तो नहीं हो गई? जब नींद नहीं आती तो मां को सोचने लगता हूं. याद करता हूं बचपन की कोई लोरी या कोई फ़िल्मी गाना जो मां सुनाती थी. सुलाते वक्त. विचार सौत है नींद की. पर मां कैसे सौत हो सकती है? योग की कोई विधि भी मदद नहीं कर पाती है. नींद को मनाने में. कहीं लौटके गांव तो नहीं चली गई. रूठके. भागके. कुएं के पास खडी मेरा इन्तजार कर रही हो. पीपल के नीचे बैठे सुस्ता रही हो. खोमचे वाले से फोफी खरीद के खा रही हो. या अपने मायके आंगन में मुंह फुलाये बैठी, मेरी राह देख रही हो कि आये और विदा कराके ले जाये. मेरी नींद मुंहजोड जो ठहरी.

Sunday, December 21, 2008

सिफर

तुम्हारे लिये मैंने कुछ नहीं खरीदा

ईश्वर को भी आजतक कुछ नहीं दिया

मां भी वंचित है मेरे द्वारा कुछ भी पाने से,

तुम सबों से अभी तक लेता ही आया हूं,

ममता की छांव, मां की आंचल से,

ईश्वर ने दिया है ये जीवन,

और तुमने, तुमने दिया है प्रेम,

जीने की वजह.

सोचता हूं लौटाऊंगा,

इसके एवज में कुछ

पर इसे बदले की बात मान

खामोश हो जाता हूं,

सच ये भी है कि मेरे बटूएं में कुछ नहीं है

सिर्फ़ एहसास है

मेरे पास यही है कि

मुझे मां, ईश्वर और तुमसे प्रेम है.

Tuesday, December 9, 2008

चांद, चाय और बैन्डस्टैन्ड

चांद से इतना करीबी रिश्ता कभी महसूस नहीं हुआ था. कभी लगा ही नहीं था कि, मेरे कहने भर से ये उतर आयेगा जमीं पर और कहेगा, लो! मैं गया. बचपन में जब दादी कह्ती थी " चंदा मामा दूर के, पुए पकाये गुड के, आप खाये थाली में, मुन्ने को दे प्याली में", तो सोचता था चांद दूर के रिश्तेदार हैं मेरे. जब तक गांव रहा पुए गुड के ही रहें और चंदा भी तब तक दूर ही रहा. गांव की गलियों से होते हुए, मैं मुम्बई पहुंचा और फिर बैन्डस्टैन्ड. समझ में आया. दादी चंदा को दूर तो कह्ती थी लेकिन मामा क्यों कहती थी. चंदा के मामा होने का अहसास बैन्डस्टैन्ड पे हो ही गया. इतना करीब कि, थोडा उछल के, हाथ लगाके, पकडके, दूसरी हथेली पे छाप लेलूं. खुले आकाश में सिर्फ़ चंदा ही नज़र रहा था. बडा सा. मैंने देखा चांद के साथ सिर्फ़ दो तारें ही थें. तारों की फ़ौज को मैंने पहले कई बार आपस में मौज करते देखा था. लेकिन, बस दो तारें को चांद का पीछा करते हुए पहली बार देखा. शायद कुछ और रोशनी की ज़िद पे होंगे. "आप खाये थाली में, मुन्ने को दे प्याली में", मामा को यह अह्सास हो गया हो की मैं बडी दूर से इस दूरी को खतम करने आया हूं. रिश्ते दूरी को तय करके ही तो मढे जाते हैं. एक काले पत्थर पे बैठे मैं चांद से बतिया रहा था. पीछे से तेज़ आवाज़ आई "चाय लेलो, चाय". चांद ने मुन्ने के लिए प्याली भेजी थी. बैन्डस्टैन्ड पे समुद्र की लहरें मेरे पांव में गुदगुदी लगाने को आपस में होड लगाये बैठी थी, कभी लहरें उछल के मेरे उपर गिर पडती थी, बालों पे, कमीज पे. कुछ तो पाकेट के अन्दर समा जाती, पता नहीं मेरे साथ होना चाहती थी या मेरी हैसियत का पता लगा रही थी. प्याला थामे, मैं एक एक घूंट पीये जा रहा था और मिट रही थी मेरे और चंदा के बीच की दूरी, फ़र्क मिट रहा था दादी और चांद में, तय हो रहे थें गांव और मुम्बई के बीच का सफ़र. चंदा मामा अब दूर नहीं रहें.

Saturday, October 18, 2008

मां होती तो क्या होता

सोचता हूं
मां होती तो क्या होता
ज़मीं होती आसमां होता
आंचल की छांव घनी होती
बेगाने से इस बेरहम शहर में
कोई कोई अपना होता

सोचता हूं
मां होती तो क्या होता
नहीं कुछ बुरा सब भला होता
सपनों का गांव बसा होता
वीराने से इस तपते शहर में
अपना भी कोई निशां होता

सोचता हूं
मां होती तो क्या होता
जगमग सारा शमां होता

सूरज का घर बना
काले कलूटे बेशरम शहर में
दूश्मन के दिल में वफ़ा होता

सोचता हूं
मां होती तो क्या होता
चुल्हे पर बर्तन चढा होता
दाल रोटी पकी होती
तडपते बिलखते भूखे शहर में
शायद ही कोई भूखा होता

सचमुच
मां होती तो क्या होता!