Sunday, July 19, 2009

बरखा

"तुम मुझसे इतनी बेरूखी से क्यों बात करती हो?"
"मेरी मर्जी."
"मुझे तुम्हारी मर्जी अच्छी लगती है." राघव यह बात कह तो देता लेकिन अन्दर ही कुढता रहता. कालेज का पहला दिन था, जब पहली बार राघव ने उसे देखा था तो धुएं से जलेबी बना रही थी. टेढा-मेढा सफ़ेद सफ़ेद हवा में उछाल रही थी. उसके यहां होती तो लोग कितना हंसते उसपे. और अगर उसका कोई भाई वाई होता तो टांगे तोड देता उसकी. फिर अगले दो साल में कभी नहीं देखा था उसे जलेबी की दूकान लगाते हुए. काफ़ी दिन हो गये उस बात के. कैसी तो थी वो दूबली-पतली, आंखें बडी मटकती थी उसकी. जब खडी होती तो दोनों टांगों को क्रौस कर लेती थी. बाद के दिनों में मालूम हुआ बडी जान थी उसमें. बरखा राघव को कभी तवज्जो नहीं देती थी, कभी-कभी यह बात राघव को अच्छी लगती और कभी तो लगता कि वो भी हवा है. कुछ भी नहीं. राघव रोज़ की तरह ओफिस में बिजी था कि फोन की घन्टी बजी. देखा बरखा का फोन था.
"तुम मेरे साथ बाज़ार चलोगे ?" वो जब भी फोन करती हाल-चाल नहीं पूछती. राघव को आंख के सामने एक साथ कई ताजमहल उगता हुआ महसूस हुआ. कई नई बातें एक साथ जो हुई थी. एक तो उसका फोन करना, दूसरी साथ जाने का आमंत्रण और तीसरी..मन ही मन ढूंढने लगा.
"कब?"
"आज." बरखा ने कहा.
"क्या काम है?"
"काम सुनोगे तो तुम हंसोगे."
"नहीं हंसूंगा. तुम बताओ." राघव ने कहा.
"मुझे चूडियां खरीदनी है." राघव को लगा वो हवाई जहाज में रसमलाई खा रहा है. उसने कहा.
"आज तो नहीं हो पायेगा. कल चल लेते हैं."
"नहीं आज ही. कल मुझे मेहंदी लगानी है और परसो मुझे शादी में जाना है." इस बात पे बरखा ने कुछ ज़्यादा ज़ोर दिया था.
"कल चलते है न,आज तो एक क्लाइंट आनेवाला है." मान गई वो. भारत पाकिस्तान में दोस्ती हो गई. दूकानदार चूडी पे चूडी दिखाये जाये लेकिन बरखा को राघव की तरह चूडी में कुछ न कुछ कमी दिख जाये.एक से दूसरे, दूसरे से तीसरे. कई दूकानों के बाद उसने अपने पसन्द की चूडियां ले ली. चूडी के जगह अगर राघव ढूंढ रही होती तो अभी तक कई बार इरिटेट हो चुकी होती वो. फिर पागलों की तरह घूमने लगे दोनों.
"मैने डैडी के लिए इस दूकान से कुर्ता खरीदा था." बरखा ने चहकते हुए कहा.
"कभी मेरे लिए भी कुछ खरीदो न."
"तुम्हारे लिए क्यों खरीदूं? कौन हो तुम?" बरखा की यह बात राघव को सज़ा लगती. और यह सज़ा उसे क्यों मिलता पता न चलता.
"तुम जानती हो, तुम सिर्फ़ सज़ा सुनाती हो ज़ुर्म नहीं बताती." राघव ने उसकी आंखों उतरते हुए कहा.
"मैं ऐसी ही हूं." चमकते हुए कहा उसने. राघव हार जाता और हारा भी तो सिर्फ़ वही था.
"मुझे तो तुम्हारे होने भर से ही सुकून मिलता है."
"तुम फिर...." गुस्साते हुए थोडा आगे निकल गई. दूरी के बाद भी खामोशी तो थी ही दोनों के साथ. बरखा थोडा पीछे हुई या राघव थोडा तेज़ हुआ उसे याद नहीं. लेकिन दोनों फिर साथ थे.
"मेरे चेहरे पे फ़ुन्सी हो गया है." दूबली होती हुई वो बोली.
"कहते है फ़ुन्सी होने का मतलब है कि आप खूबसूरत हो रहे हैं." एक बार फिर आंखों में उतरेने की कोशिश की राघव ने.
"हां हां तब तो पूरे चेहरे पर भर जाये न. कोई जगह खाली क्यो रहे?" बिदक गई और बैग से छाता निकाल के ओढ लिया.
"नहीं तुम पहले से ही बहुत खूबसूरत हो." राघव भी छाता में घुस गया. लेकिन बरखा छिटककर दूर हो गई. तेज़ तेज़ चलने लगी. धीरे धीरे आगे होती गई वो. राघव पीछे छूटता गया.