Wednesday, December 24, 2008
मुंहजोड नींद
Sunday, December 21, 2008
सिफर
तुम्हारे लिये मैंने कुछ नहीं खरीदा
ईश्वर को भी आजतक कुछ नहीं दिया
मां भी वंचित है मेरे द्वारा कुछ भी पाने से,
तुम सबों से अभी तक लेता ही आया हूं,
ममता की छांव, मां की आंचल से,
ईश्वर ने दिया है ये जीवन,
और तुमने, तुमने दिया है प्रेम,
जीने की वजह.
सोचता हूं लौटाऊंगा,
इसके एवज में कुछ
पर इसे बदले की बात मान
खामोश हो जाता हूं,
सच ये भी है कि मेरे बटूएं में कुछ नहीं है
सिर्फ़ एहसास है
मेरे पास यही है कि
मुझे मां, ईश्वर और तुमसे प्रेम है.
Tuesday, December 9, 2008
चांद, चाय और बैन्डस्टैन्ड
चांद से इतना करीबी रिश्ता कभी महसूस नहीं हुआ था. कभी लगा ही नहीं था कि, मेरे कहने भर से ये उतर आयेगा जमीं पर और कहेगा, लो! मैं आ गया. बचपन में जब दादी कह्ती थी " चंदा मामा दूर के, पुए पकाये गुड के, आप खाये थाली में, मुन्ने को दे प्याली में", तो सोचता था चांद दूर के रिश्तेदार हैं मेरे. जब तक गांव रहा पुए गुड के ही रहें और चंदा भी तब तक दूर ही रहा. गांव की गलियों से होते हुए, मैं मुम्बई पहुंचा और फिर बैन्डस्टैन्ड. समझ में आया. दादी चंदा को दूर तो कह्ती थी लेकिन मामा क्यों कहती थी. चंदा के मामा होने का अहसास बैन्डस्टैन्ड पे हो ही गया. इतना करीब कि, थोडा उछल के, हाथ लगाके, पकडके, दूसरी हथेली पे छाप लेलूं. खुले आकाश में सिर्फ़ चंदा ही नज़र आ रहा था. बडा सा. मैंने देखा चांद के साथ सिर्फ़ दो तारें ही थें. तारों की फ़ौज को मैंने पहले कई बार आपस में मौज करते देखा था. लेकिन, बस दो तारें को चांद का पीछा करते हुए पहली बार देखा. शायद कुछ और रोशनी की ज़िद पे होंगे. "आप खाये थाली में, मुन्ने को दे प्याली में", मामा को यह अह्सास हो गया हो की मैं बडी दूर से इस दूरी को खतम करने आया हूं. रिश्ते दूरी को तय करके ही तो मढे जाते हैं. एक काले पत्थर पे बैठे मैं चांद से बतिया रहा था. पीछे से तेज़ आवाज़ आई "चाय लेलो, चाय". चांद ने मुन्ने के लिए प्याली भेजी थी. बैन्डस्टैन्ड पे समुद्र की लहरें मेरे पांव में गुदगुदी लगाने को आपस में होड लगाये बैठी थी, कभी लहरें उछल के मेरे उपर गिर पडती थी, बालों पे, कमीज पे. कुछ तो पाकेट के अन्दर समा जाती, पता नहीं मेरे साथ होना चाहती थी या मेरी हैसियत का पता लगा रही थी. प्याला थामे, मैं एक एक घूंट पीये जा रहा था और मिट रही थी मेरे और चंदा के बीच की दूरी, फ़र्क मिट रहा था दादी और चांद में, तय हो रहे थें गांव और मुम्बई के बीच का सफ़र. चंदा मामा अब दूर नहीं रहें.