Thursday, December 31, 2009

नया साल, बूढी चांद.

नया साल.
वही पुराना सूरज, पीली धूप
बूढी चांद, थकेली चान्दनी
एक्वागार्ड से निकला पानी
ईटों का कब्र, मकान
रिश्तों में मीलों के फ़ासले
हरी घास, घिस चुके गुलाब
पापी पेट का रोना
बुजूर्ग ख्वाहिशें, मकान, गाडी, अच्छी नौकरी
टी.वी, फ़्रिज, वाशिंग मशीन
ठेकों पे लम्बी भीड
हथियारों का खेल, अमेरिका, रुस, चीन, भारत
मन्दिर, मस्जिद, चर्च
इन्डिया गेट, कोहरे की किताब दिल्ली
प्यार के लफ़्ज 'आई लव यू'
वही तेरा-मेरा
वही रंग, हिन्दू, मुसलमान, यहूदी, ईसाई
वही धूल से सने संदेश, 'हैप्पी न्यू इयर'
नया साल २०१०.

Saturday, December 26, 2009

खत

मां,
आशा है कि तुम ठीक होगी.
मेरा ये है कि,
जब तक सुबह बूढी नहीं होती
नींद अपनी पूरी उम्र जीती है.
हर सुबह
यहां की सर्दी को
गर्म पानी से पीटता हूं.
गुनगुने पानी की धार
और
दूबली हो चुकी धूप
तुम्हारी बात मानती होगी.
धड-फड तैयार होता हूं.
पर मां,
आफिस फिर भी
वक्त पर पहुंचता हूं.
आफिस पहुंचकर
मेरी भूख
धरमेन्दर की चाय और मठ्ठी की
शिकार हो जाती है.
कुछ फोन कौल निपटाकर
खाना खाता हूं.
देर रात घर लौटकर
खाना बनाता हूं.
रात को सोते वक्त
दोनों पैरों में
जुराबें पहन लेता हूं.
अधरतिया तक करवटों के
लफ़डे होते है
लोरियों के दिन लद गये
पता है.
मां मुझे याद है
मैंने कहा था
मैं दिल्ली जाऊंगा.

Friday, December 25, 2009

सूरज अब नहीं नहाता

सूरज अब नहीं नहाता
धूप जैकेट पहनके आता
धूप की गहराई
अब कम हो गई है
सर्दी की डर से
भागी फिरती है
शाम पसर जाती है
दिनसे ही.
कोहरे की शोर
तडके शाम से
भोर तक.
हाथ में थामे
चाय की प्यालियों से
धुआं निकलता है.
गर्दन में शाल लपेटे
या गुलबन्द बांधे
बसों मे लोग.
कोहरों की शरारतों के
दिन शुरू हुए.
दो-दो रजाईयों वाली
सर्दी की रात
नया साल नई दिल्ली.

Friday, December 4, 2009

विग्यापन

घरों की दीवारों
मकानों की चबूतरों
गली, मोहल्ले
कस्बों की मोड पे
हर तरफ
लगा है, एक लुभावना खिलौना
सटा है, एक खूबसूरत तस्वीर
और नीचे लिखी है
दो-चार
मीठी-मीठी बातें
हर जगह
बाज़ार फैल रहा है अब.

Sunday, November 29, 2009

छोटी सी दुनियां

अपनी छोटी सी दुनियां होगी
बिल्कुल छोटी सी,
उस छोटी सी दुनियां में
दो-तीन चांद होंगे
और
एकाध सूरज,
एक छोटा सा जंगल
जिसमें चन्दन के कई सारे पेड होंगे,
एक भरा-पूरा इत्र का कुआं
हरा-भरा खेत
मकई की बालियां,
हर मंगलवार
खुश्बू का बाज़ार लगेगा,
एक हंसी का साहूकार होगा,
हर सुबह
मुर्गी की बांग से हम उठेंगे
और नींदें सोयेगी,
तुम होगे
और हम
और
अपनी छोटी सी दुनियां में,
हैप्पीनेस का बैंक होगा
जिसमें हम अकाउंट खोलेंगे.
बिल्कुल छोटी सी दुनियां होगी.


Wednesday, November 25, 2009

मुंबई २६/११

एक बात बताओ मेरे प्यारों धर्म का रंग चढाते क्यों हो?
जहां न दिखता अपने सा रंग, उसका घर जलाते क्यों हो?
प्रेम, भाईचारा मिटाकर, आतंक का लहर उठाते क्यों हो?
सब अपने है बात ये भूलकर, बस्तियां जलाते क्यों हो?
एक बात बताओ मेरे प्यारों धर्म का रंग चढाते क्यों हो?

ज़िद को छोड अगर ढूंढों तो, धर्म का अर्थ प्यार है
ईश्वर, अल्लाह और यीशू को, प्रेम धर्म स्वीकार है
जीवन के इन मूल जडों को, दिल से भुलाते क्यों हो?
आपस में लड-लडके दीवारों, दर गिराते क्यों हो?
एक बात बताओ मेरे प्यारों धर्म का रंग चढाते क्यों हो?

हवा, धरती, सूरज, पानी, क्या दुनिया में अनेक है?
बांटा इनको किसने धर्म में, क्या अब तक ये नहीं एक है?
काट - काट के सूरज को, दिन में रात लाते क्यों हो?
जिन्हें बनाया ऊपरवाले ने, उनको तुम मिटाते क्यों हो?
एक बात बताओ मेरे प्यारों धर्म का रंग चढाते क्यों हो?

पंडित, नेता, पादरी, मौलवी इनकी बातों में आते क्यों हो?
मंदिर, मस्जिद, चर्च के फेर में, आपसी प्रेम ढहाते क्यों हो?

एक बात बताओ मेरे प्यारों धर्म का रंग चढाते क्यों हो?
एक बात बताओ मेरे प्यारों धर्म का रंग चढाते क्यों हो?

Friday, November 20, 2009

एक लडकी

एक लडकी
सूरज की पहली किरण जैसी
धरती पे उतरती है
और
टूटकर दूर तक
बिखर जाती है,
पहली बार
किसी चीज का
टूटना
और
बिखर जाना
बुरा नहीं लगता.

Thursday, November 19, 2009

जरूरत भर की चीजें

जरूरत भर की चीजें
होनी चाहिये
ज़िन्दगी में,
एक घर या कमरा
कमरे में एक तरफ लगी हो
दादी की तस्वीर, गणेश जी की मूर्ति
अगरबत्ती का पैकेट, माचिस
एक स्वादिष्ट रसोईघर
एक घडा, दो गिलास
एक कलम, कुछ किताबें,
एक छोटी कुर्सी, एक टेबल
पुराना फोटो अलबम
स्टैन्ड वाला फोटो फ्रेम
छोटा सा बगीचा
एक अमरूद का पेड
कुछ सुखे पत्ते, एक तोता
एक प्यारा सा छत, पानी की टंकी
एक गमला
छत के ऊपर बडा सा आसमान
आसमान में चमकता सूरज
तारों की बारात,
चंदा मामा
पडोस में बिट्टू का घर
एक तालाब, तालाब में मछली
एक सायकल
स्कूल, एक मास्टर जी
बांस की एक छडी
गांव के किसी मोड पे खोमचेवाला
एक चवन्नी,
कुछ पैसे,
सर्दी, गर्मी, बारिश, धूप
राजा-रानी की कहानी
एक भूत,
यार-दोस्त
दो-तीन पुराने खत,
खत में नीचे लिखा हो
सिर्फ़ तुम्हारी,
और
मां.

Sunday, November 15, 2009

बरखा-२

सुबह उठके वह रिश्ते रिचार्ज करके की जुगत में भिड गया. दोस्त से १०० रुपये उधार लिया और वोडाफ़ोन का वाऊचर खरीद लाया. कल वाली पार्टी में कैसी गाई थी वो, यह फीडबैक तो देना जरूरी था ही. आखिर उसने पूरे डांस फ्लोर को हिला के रख दिया था. वाऊचर को रगड के अपने मोबाईल में जल्दी से नम्बर टाईप करने लगा, मन ही मन सोचा प्री-पेड वाले ऐसे ही तो रगडते है लाईफ़ भर. घन्टी बजी.
राघव: "हैलो."
बरखा: "हैलो."
राघव: "कैसे हो?"
बरखा: (कुनमुनाते हुये) "अच्छी हूं."
"यार तुम तो कल डि.....बा लग रही थी." डि.....बा शब्द को कई किलोमीटर तक खींचा था उसने.
"डिबा! ये क्या होता है?" वो शायद थोडी इरिटेट हुई थी. राघव को ऐसा लगा.
"डि..बा, मतलब..मतलब बहुत खूबसूरत गाया तुमने . वो अंग्रेजी में होता है न, एकदम अप्सरा टाईप." उसने कहा.
"डि..बा! अप्सरा टाईप." थोडी देर चुप रही थी वो. शायद तकिया ठीक कर रही होगी. राघव ने सोचा. फिर वो अचानक बोली.
"अरे स्टुपिड! डिबा नहीं, दिवा. दिवा. अंग्रेजी में उसे दिवा कहते है, बेवकूफ" और जोर-जोर से हंसने लगी वो.
"लेकिन मेरे यहां तो सब डिबा ही बोलते है." राघव बोला.
"डिब्बे लोग डिब्बा ही बोलेंगे न!" उसकी हंसी बडी तेज़ गति से खर्च होने लगी. हंसी की कई इंस्टौलमेंट एक साथ ही जमा कराने लगी राघव को. उसकी एक-एक हंसी चिपकने लगी राघव से.
"प्लीज, इतना मत हंसो. बहुत लोन चढ जायेगा मेरे उपर." राघव बोला. इतने में किसी ने बरखा को आवाज़ दी. फोन पे हल्का ही सुन पाया था वो.
"आ... ई..." कई किलोमीटर तक बरखा ने भी खींचा था इस शब्द को.
"अच्छा मैं रखती हूं. बाद में बात करते है." फोन कट कर दिया बरखा ने. बैलेंस जानने के लिये राघव एसएमएस करने लगा. ताकि जान सके रिश्ता अभी और कितने दिन चलेगा.

Tuesday, November 10, 2009

वक्त की कलाकारी

वक्त की चालबाजी है ये
कहने को तो उम्र बढता है
और दिन गुजरता है रोज़
पर सही माने तो
सब समय की जालसाजी है
चक्कर पे चक्कर है
गोल गोल दुनियां
समय गुजर रहा है
एक एक दिन करके आगे.
वक्त बीतता है कहके
मुन्ने की हाथ में
झुनझुना थमाया गया है
आज रविवार, कल सोमवार,
फिर कल मंगलवार कहके
दिन को गुजरने दिया जाता है
और ऐसे ही वक्त को
मौका मिलता है आगे जाने का.
वक्त आगे निकलता चलता
उम्र बढती जाती तो
शनिवार को खत्म होके
दिन फिर रविवार ही क्यों? आता.
वक्त की कलाकारी है सब.

रिश्ते सब निठल्ले हो गये

रिश्ते सब निठल्ले हो गये
फुल के ये रसगुल्ले हो गये
रंग बिरंगे किस्से थे जो
सब के सब काले हो गये

रिश्ते सब निठल्ले हो गये

मौडर्न घर की मुनिया हो गई
काली-काली चंदनियां हो गई
कट गई खुशियों की पतंग
गम की बल्ले-बल्ले हो गये

रिश्ते सब निठल्ले हो गये

दोस्ती यारी प्यार मोहब्बत
हंसने भर की बातें हो गई
टूट रहा है सब कुछ तेज़
रिश्ते हौले - हौले हो गये

रिश्ते सब निठल्ले हो गये

घर की दुनियां उजड रही है
मकां आग सी फैल रही है
बेबी, बिट्टू, काकी का घर
गुम सारे मोहल्ले हो गये

रिश्ते सब निठल्ले हो गये
फुल के ये रसगुल्ले हो गये



Sunday, November 8, 2009

घर.. अब छोड रहा हूं

मसालों की डिब्बियों और
जंग लगे चुल्हे से शुरु हुआ
सफ़र घर होने का.
एक थाली खरीदा खुद के लिये
एक किसी अचानक आ जाने वाले के लिये
एक तसली, दो तीन चम्मच
दो तीन बडे-बडे डिब्बे
चावल, दाल और आटे के लिये.
दो कूकर
एक गैस सिलिन्डर खरीदा ब्लैक में
दो विम की टिकियां
थोडी सी चीनी, इलायची
दूध का पाउडर
डब्बे-डिब्बियों को सजाके और
माचिस की तिलियों के सहारे
बनाया था
घर
अब छोड रहा हूं.

Sunday, October 4, 2009

नहीं कविता

तुम्हारे

नहीं होने से,

चांद पे, चिडियों के बारे में

झील पे, मौसम के लिये

तुम्हारी किसी अदाओं पे

आखों पे, तुम्हारी हंसी पे

अपनी बेबसी पे

नहीं लिख सका,

भी

कविता।

Friday, September 11, 2009

बूंदों की शराब

ऐ दिल्ली,
चलो बारिश बोतलों में भरे
और बूंदों की शराब बनाये
कुछ ख्वाब तुम कुछ हम सजाये
आन्धियां अंगीठी पे सेंके
और तूफानों का कबाब बनाये
दायां तुम और बायां हिस्सा हम चखे
दो पैसे की ख्वाहिशें खरीदें
आधा-आधा का हिसाब बनाये
रात भर सांसों की गुफ़्तगू हो
सेर भर खामोशियां टकराये
रात भर रात की किताब बनाये
छोटे-नशीले, नीले-पीले किस्से हो
खुद हो गुलाम मेम को
मेमसाब बनाये
बूंदें बरतनों में परोसें
फुहारें चेहरों पे मले
माहताब बनाये
बारिश बोतलों में भरे
बूंदों की शराब बनाये
ऐ दिल्ली.

Friday, August 28, 2009

मां के कई मौसम होते है.

चंदा मामा. चंदा मामा. बच्चे को मनाना हो या उसे खाना खिलाना हो. बच्चे को गोद में लिये मां चंदा को ही मां कहने लगती है. मां ने किसी घडी चांद की कलाई पे धागा बांधा और चांद मामा हो गया. मां इतनी अच्छी हो गई कि चंदा को भी मामा होना पडा. दो-दो मा. चंदा जैसे मा-मा. और कैसी तो होती है मां कि कुछ भी उरेब होने पर कान उमेठ देती है और फिर कभी सर्दियों की रात में सफ़ेद रुई वाली रजाई हो जाती है. घर का कोना-कोना गर्म. एक ही दिन मां के कई मौसम होते है. स्कूल जाते समय बोरी थमाती और ना-नुकुर करने पर पीठ के पुर्जे हिलाने वाली मां. गन्दे कपडे और भात पकाने वाली मां. कभी चुल्हे में लकडी डालके फूं..फूं..फूं करती तो कभी चिपडी डालके चुल्हे को पंखे झलती मां. स्कूल से लौटने पर हबड-हबड भात खिलाती मां. किसी हिस्से कट-छिल जाये तो बिन बादल बरसती मां. मां की दुनिया हम होते हैं पर मां हमारी दुनिया का एक हिस्सा भर हो जाती है. फिर भी हर जगह तो होती है मां . धूप, शाम, बारिश, ज़ख्म, फ़फ़ोले, रौशनाई, दवात. शहर में, गांव में. चौधिंयाती रात में, किसी दोपहर खलिहान में. हर तरफ मां की दुनिया होती है. और हम मां के हिस्से होते हैं. फिर मां सिर्फ़ हमारा हिस्सा भर कैसे हो सकती है? मां तो सिर्फ़ होती है. अपनी दुनिया में मां को पूरा होने दो.
फिर कहना..
"सुबह सबेरे रात अंधेरे मां मेरी उठ जाती है
नीम, नमक, मिश्री की बोरी मां हमें दिलाती है
घाट - घाट पे बाट - बाट पे मां को काम होता है
जाग-जागके भाग-भागके मां को कब आराम होता है."
मां को होने भर दो. मां के कई मौसम होते है.

Friday, August 21, 2009

दूल्हनियां

उछाल मारती उम्मीद से अब कोई भी उम्मीद बेमानी है. लाख रगड के, दिमाग के कोई भी पेंच खोल के, कुछ ऐसा हो जाये कि लोग नाम लेने लगे एक बार, बस. गोल, चाकर चाहे तिरपिटाह ढंग की कोई गोली मदद नहीं करती ऐसे में. मन रोज़ इस लालच से दौड लगाता है कि अबकी बार त फर्स्ट हो ही जायेंगे. कै रंग के पुडिया भी फांक लिया. फिर भी बात ओतने के ओतने. उतना ही ज़ोर लगाना पडता है भोरे भोरे. एस्नो पौडर लगयला के बाद, हाफ़ शेरवानी पहनने के बाद भी दूल्हा तो क्या, सहबोलिया भी नहीं बन पाया हूं लाईफ़ का. परयासरत हूं. फिर भी. कभी निमंत्रण पत्र हाथ लग गया किसी लगन तो, बाराती तो बन ही जाऊंगा. फिर ढोल, बाजे तमाशे. ठीन चक ठीन चक...., आज मेरे यार की सादी है...., आये हम बरियाती बारात लेके, जायेंगे तुम्हें भी अपने साथ लेके.... नाचते गाते हुए पहूंचूंगा. लोग सब मस्ती में लोटा रहे होंगे. ...कौफ़ी, कोको कोला, चाट, शरबत पीते लोगों के बीच उठके मार दूंगा दूल्हा को. ....ठांय.ठांय. और बिदागरी कराके ले आऊंगा अपने घर. लाईफ़ को. हा...हा..हा...

Friday, August 14, 2009

फईसन देखा

अईसन देखा वईसन देखा
जगह जगह पर फईसन देखा
कईसन देखा कईसन देखा
जगह जगह पर फईसन देखा

अईसन देखा अईसन देखा

अन्तर मन्तर जन्तर देखा
पाउडर लगाए बन्दर देखा
देसि मुर्गी विलायती बोल
चउक चउक जोगिन्दर देखा

अईसन देखा अईसन देखा

छोट कपड में लईकीसन
नील गगन में उडत जाये
कान में ठेपी मुंह से धुआं
ऊल्टा सबकुछ गडबड देखा

अईसन देखा अईसन देखा

लाल लिबिस्टिक पीअर टिकुली
अप-टू-डेट मन्त्रियाईन
उजर उजर खादी में
करिया करिया मिनिस्टर देखा

अईसन देखा वईसन देखा
जगह जगह पे फईसन देखा.

कितना साधारण

होठ पे हंसी की बूंदाबूंदी
आंखों में ख्वाबों की चहल-पहल
इशारों में कलाकारी
बातों से तीरंदाजी
सब बातें तुममे
सबकुछ खास तुम्हारा
और मैं...
कितना साधारण.

Sunday, July 19, 2009

बरखा

"तुम मुझसे इतनी बेरूखी से क्यों बात करती हो?"
"मेरी मर्जी."
"मुझे तुम्हारी मर्जी अच्छी लगती है." राघव यह बात कह तो देता लेकिन अन्दर ही कुढता रहता. कालेज का पहला दिन था, जब पहली बार राघव ने उसे देखा था तो धुएं से जलेबी बना रही थी. टेढा-मेढा सफ़ेद सफ़ेद हवा में उछाल रही थी. उसके यहां होती तो लोग कितना हंसते उसपे. और अगर उसका कोई भाई वाई होता तो टांगे तोड देता उसकी. फिर अगले दो साल में कभी नहीं देखा था उसे जलेबी की दूकान लगाते हुए. काफ़ी दिन हो गये उस बात के. कैसी तो थी वो दूबली-पतली, आंखें बडी मटकती थी उसकी. जब खडी होती तो दोनों टांगों को क्रौस कर लेती थी. बाद के दिनों में मालूम हुआ बडी जान थी उसमें. बरखा राघव को कभी तवज्जो नहीं देती थी, कभी-कभी यह बात राघव को अच्छी लगती और कभी तो लगता कि वो भी हवा है. कुछ भी नहीं. राघव रोज़ की तरह ओफिस में बिजी था कि फोन की घन्टी बजी. देखा बरखा का फोन था.
"तुम मेरे साथ बाज़ार चलोगे ?" वो जब भी फोन करती हाल-चाल नहीं पूछती. राघव को आंख के सामने एक साथ कई ताजमहल उगता हुआ महसूस हुआ. कई नई बातें एक साथ जो हुई थी. एक तो उसका फोन करना, दूसरी साथ जाने का आमंत्रण और तीसरी..मन ही मन ढूंढने लगा.
"कब?"
"आज." बरखा ने कहा.
"क्या काम है?"
"काम सुनोगे तो तुम हंसोगे."
"नहीं हंसूंगा. तुम बताओ." राघव ने कहा.
"मुझे चूडियां खरीदनी है." राघव को लगा वो हवाई जहाज में रसमलाई खा रहा है. उसने कहा.
"आज तो नहीं हो पायेगा. कल चल लेते हैं."
"नहीं आज ही. कल मुझे मेहंदी लगानी है और परसो मुझे शादी में जाना है." इस बात पे बरखा ने कुछ ज़्यादा ज़ोर दिया था.
"कल चलते है न,आज तो एक क्लाइंट आनेवाला है." मान गई वो. भारत पाकिस्तान में दोस्ती हो गई. दूकानदार चूडी पे चूडी दिखाये जाये लेकिन बरखा को राघव की तरह चूडी में कुछ न कुछ कमी दिख जाये.एक से दूसरे, दूसरे से तीसरे. कई दूकानों के बाद उसने अपने पसन्द की चूडियां ले ली. चूडी के जगह अगर राघव ढूंढ रही होती तो अभी तक कई बार इरिटेट हो चुकी होती वो. फिर पागलों की तरह घूमने लगे दोनों.
"मैने डैडी के लिए इस दूकान से कुर्ता खरीदा था." बरखा ने चहकते हुए कहा.
"कभी मेरे लिए भी कुछ खरीदो न."
"तुम्हारे लिए क्यों खरीदूं? कौन हो तुम?" बरखा की यह बात राघव को सज़ा लगती. और यह सज़ा उसे क्यों मिलता पता न चलता.
"तुम जानती हो, तुम सिर्फ़ सज़ा सुनाती हो ज़ुर्म नहीं बताती." राघव ने उसकी आंखों उतरते हुए कहा.
"मैं ऐसी ही हूं." चमकते हुए कहा उसने. राघव हार जाता और हारा भी तो सिर्फ़ वही था.
"मुझे तो तुम्हारे होने भर से ही सुकून मिलता है."
"तुम फिर...." गुस्साते हुए थोडा आगे निकल गई. दूरी के बाद भी खामोशी तो थी ही दोनों के साथ. बरखा थोडा पीछे हुई या राघव थोडा तेज़ हुआ उसे याद नहीं. लेकिन दोनों फिर साथ थे.
"मेरे चेहरे पे फ़ुन्सी हो गया है." दूबली होती हुई वो बोली.
"कहते है फ़ुन्सी होने का मतलब है कि आप खूबसूरत हो रहे हैं." एक बार फिर आंखों में उतरेने की कोशिश की राघव ने.
"हां हां तब तो पूरे चेहरे पर भर जाये न. कोई जगह खाली क्यो रहे?" बिदक गई और बैग से छाता निकाल के ओढ लिया.
"नहीं तुम पहले से ही बहुत खूबसूरत हो." राघव भी छाता में घुस गया. लेकिन बरखा छिटककर दूर हो गई. तेज़ तेज़ चलने लगी. धीरे धीरे आगे होती गई वो. राघव पीछे छूटता गया.

Friday, June 12, 2009

तेरा-मेरा, क्यों?, नहीं

समेटूंगा, तुम्हारे दिये सारे गम, बेरूखी, बेरहमी

दिन-रात 'तेरा-मेरा' करना, बात-बात में दूरी का,

फ़र्क का अहसा कराना,

जमा करता रहूंगा,

हर बात में तुम्हारा 'क्यों?' कहना,

थोडी हंसी भी छिपाकर-चुराकर रख लूंगा,

तुम्हारे कहे 'क्यों?', 'तेरा-मेरा' और 'नहीं',

बोरियों में भर लूंगा,

जब

खतम हो जायेगा सबकुछ,

तुम्हारा असर तुम्हारा नशा

तब तुम्हारे दिये

गम, बेरूखी, बेरहमी, 'तेरा-मेरा',

'क्यों?', 'नहीं' और

तुम्हारी हंसी को धोकर, ऊबालकर,

धूप में सुखाऊंगा,

पीसकर-छानकर भस्म(चूरन) बनाऊंगा,

सुबह गर्म पानी के साथ, रात में दूध के साथ लूंगा

तुम फिर असर करोगे, उतरोगे

आत्मा में रूह के भीतर.

Sunday, June 7, 2009

बनकर फूल खिलो

बनकर फूल खिलो गुलशन में, डरकर तुम क्या पाओगे

जो पाया  है बांट दो सबकुछ, लेकर  तुम क्या जाओगे

हंसते  खिलते   चेहरो   से,   दिल का  दर्द  मिटाओगे 

बांटोगे   जो  बबूल  के  बीज,  बेर  कहां  से   पाओगे

खुशी  के  दीप  जलाकर  तुम, गम  की रात भगाओगे

सूरज  को  दिखा के राह,    नया    सवेरा   लाओगे

बनकर  बादल  आसमां   में,  जो   तुम   छा जाओगे

पड  के  बून्द  जमीं  पे  तुम, सबकी  प्यास मिटाओगे

बडे   न    बनना  खजूर   जैसे, ऊंचे   ही  रह जाओगे

खिलोगे जो   गुलाब  बनके  सबका  आंगन  सजाओगे

तुमसे  होगी जवां  महफ़िलें,  गीत गज़ल जो गाओगे

खुशी बांटके  दर्द  जो  लोगे,  सबकी  दुआयें  पाओगे

हिम्मत से  ही  तो दुनिया में,  सबने  जग को जीता है

मन  में   विश्वास  रखोगे  तो,   तुम  भी  जीत जाओगे

बनकर फूल खिलो गुलशन में, डरकर तुम क्या पाओगे

Monday, April 20, 2009

ऐसी तैसी

दीवारों की ऐसी तैसी, सरकारों की ऐसी तैसी

खादी पहन जो देश को लूटे, गद्दारों के ऐसी तैसी

साहूकारों की ऐसी तैसी, पहरेदारों की ऐसी तैसी

बच्चे जहां भूखे मरे, दूकानदारों की ऐसी तैसी

बाज़ारों की ऐसी तैसी, हज़ारों की ऐसी तैसी

मां जिनसे बेटा खो दे, हथियारों की ऐसी तैसी

परिवारों की ऐसी तैसी, रिश्तेदारों की ऐसी तैसी

मां की आंख में आंसू जो दे, ईमानदारों की ऐसी तैसी

नज़ारो की ऐसी तैसी, उन प्यारों की ऐसी तैसी

होठ पे हंसी दिलमें खंज़र, कलाकारों की ऐसी तैसी

सितारों की ऐसी तैसी, बहारों की ऐसी तैसी

दिल टूटे जिस दिल्ली में, दिलदारों की ऐसी तैसी.

Tuesday, February 10, 2009

हर दिन नया मिलोगे.

क्यों

एक टोक भर देने से

बिखर जाते हो दूर दूर तक कई दिशाओं में

फिर दौड दौड के एक एक तुमको चुनता हूं

धूप देखता हूं छांव न शहर न गांव

बडी संजीदगी से ढूंढके

एक एक तुमको इकठ्ठा करता हूं

धो पोंछके सुखाके बातों की ओट लगाके

प्यार की लेई से चिपकाता हूं

पूरा एक करता हूं तुमको

फिर,

चंदन का टीका लगाके, अगरबत्ती दिखाके मनाता हूं

बात कह भर देने से

मुंह बना लेते हो, बिगड जाते हो

बिखर जाते हो दूर दूर

तुम ऐसे क्यों हुए

जो भी हो, तुम ऐसे ही रहना

बार बार बिखरना

मैं बार बार इकठ्ठा करूंगा

हर दिन नया मिलोगे तुम मुझे

Wednesday, January 7, 2009

दो लोग

एक चादर और दो लोग
दोनों में चादर की खींचतान
कभी दायें कभी बायें
बीच में थोडी सी खाली जगह
कपडों के भीतर से शरीर में पहुंचती ठिठुरन
धुंध और कोहरा ऐसा

जैसे शहर के लोगों ने
एक साथ अगरबत्तियां जलाई हो,
बिल्कुल सोंधी सी खूश्बू कोहरे की
कोहरे के डर से सूरज नहीं दीखता
छिपकर कहीं दूर से देखता कोहरे को
कोहरे में लिपटी दिल्ली में
दो लोगों के बीच चादर की खींचतान
कभी इस तरफ कभी उस तरफ,
कभी दायें कभी बायें
ये शहर दिल्ली है.