Sunday, November 29, 2009

छोटी सी दुनियां

अपनी छोटी सी दुनियां होगी
बिल्कुल छोटी सी,
उस छोटी सी दुनियां में
दो-तीन चांद होंगे
और
एकाध सूरज,
एक छोटा सा जंगल
जिसमें चन्दन के कई सारे पेड होंगे,
एक भरा-पूरा इत्र का कुआं
हरा-भरा खेत
मकई की बालियां,
हर मंगलवार
खुश्बू का बाज़ार लगेगा,
एक हंसी का साहूकार होगा,
हर सुबह
मुर्गी की बांग से हम उठेंगे
और नींदें सोयेगी,
तुम होगे
और हम
और
अपनी छोटी सी दुनियां में,
हैप्पीनेस का बैंक होगा
जिसमें हम अकाउंट खोलेंगे.
बिल्कुल छोटी सी दुनियां होगी.


Wednesday, November 25, 2009

मुंबई २६/११

एक बात बताओ मेरे प्यारों धर्म का रंग चढाते क्यों हो?
जहां न दिखता अपने सा रंग, उसका घर जलाते क्यों हो?
प्रेम, भाईचारा मिटाकर, आतंक का लहर उठाते क्यों हो?
सब अपने है बात ये भूलकर, बस्तियां जलाते क्यों हो?
एक बात बताओ मेरे प्यारों धर्म का रंग चढाते क्यों हो?

ज़िद को छोड अगर ढूंढों तो, धर्म का अर्थ प्यार है
ईश्वर, अल्लाह और यीशू को, प्रेम धर्म स्वीकार है
जीवन के इन मूल जडों को, दिल से भुलाते क्यों हो?
आपस में लड-लडके दीवारों, दर गिराते क्यों हो?
एक बात बताओ मेरे प्यारों धर्म का रंग चढाते क्यों हो?

हवा, धरती, सूरज, पानी, क्या दुनिया में अनेक है?
बांटा इनको किसने धर्म में, क्या अब तक ये नहीं एक है?
काट - काट के सूरज को, दिन में रात लाते क्यों हो?
जिन्हें बनाया ऊपरवाले ने, उनको तुम मिटाते क्यों हो?
एक बात बताओ मेरे प्यारों धर्म का रंग चढाते क्यों हो?

पंडित, नेता, पादरी, मौलवी इनकी बातों में आते क्यों हो?
मंदिर, मस्जिद, चर्च के फेर में, आपसी प्रेम ढहाते क्यों हो?

एक बात बताओ मेरे प्यारों धर्म का रंग चढाते क्यों हो?
एक बात बताओ मेरे प्यारों धर्म का रंग चढाते क्यों हो?

Friday, November 20, 2009

एक लडकी

एक लडकी
सूरज की पहली किरण जैसी
धरती पे उतरती है
और
टूटकर दूर तक
बिखर जाती है,
पहली बार
किसी चीज का
टूटना
और
बिखर जाना
बुरा नहीं लगता.

Thursday, November 19, 2009

जरूरत भर की चीजें

जरूरत भर की चीजें
होनी चाहिये
ज़िन्दगी में,
एक घर या कमरा
कमरे में एक तरफ लगी हो
दादी की तस्वीर, गणेश जी की मूर्ति
अगरबत्ती का पैकेट, माचिस
एक स्वादिष्ट रसोईघर
एक घडा, दो गिलास
एक कलम, कुछ किताबें,
एक छोटी कुर्सी, एक टेबल
पुराना फोटो अलबम
स्टैन्ड वाला फोटो फ्रेम
छोटा सा बगीचा
एक अमरूद का पेड
कुछ सुखे पत्ते, एक तोता
एक प्यारा सा छत, पानी की टंकी
एक गमला
छत के ऊपर बडा सा आसमान
आसमान में चमकता सूरज
तारों की बारात,
चंदा मामा
पडोस में बिट्टू का घर
एक तालाब, तालाब में मछली
एक सायकल
स्कूल, एक मास्टर जी
बांस की एक छडी
गांव के किसी मोड पे खोमचेवाला
एक चवन्नी,
कुछ पैसे,
सर्दी, गर्मी, बारिश, धूप
राजा-रानी की कहानी
एक भूत,
यार-दोस्त
दो-तीन पुराने खत,
खत में नीचे लिखा हो
सिर्फ़ तुम्हारी,
और
मां.

Sunday, November 15, 2009

बरखा-२

सुबह उठके वह रिश्ते रिचार्ज करके की जुगत में भिड गया. दोस्त से १०० रुपये उधार लिया और वोडाफ़ोन का वाऊचर खरीद लाया. कल वाली पार्टी में कैसी गाई थी वो, यह फीडबैक तो देना जरूरी था ही. आखिर उसने पूरे डांस फ्लोर को हिला के रख दिया था. वाऊचर को रगड के अपने मोबाईल में जल्दी से नम्बर टाईप करने लगा, मन ही मन सोचा प्री-पेड वाले ऐसे ही तो रगडते है लाईफ़ भर. घन्टी बजी.
राघव: "हैलो."
बरखा: "हैलो."
राघव: "कैसे हो?"
बरखा: (कुनमुनाते हुये) "अच्छी हूं."
"यार तुम तो कल डि.....बा लग रही थी." डि.....बा शब्द को कई किलोमीटर तक खींचा था उसने.
"डिबा! ये क्या होता है?" वो शायद थोडी इरिटेट हुई थी. राघव को ऐसा लगा.
"डि..बा, मतलब..मतलब बहुत खूबसूरत गाया तुमने . वो अंग्रेजी में होता है न, एकदम अप्सरा टाईप." उसने कहा.
"डि..बा! अप्सरा टाईप." थोडी देर चुप रही थी वो. शायद तकिया ठीक कर रही होगी. राघव ने सोचा. फिर वो अचानक बोली.
"अरे स्टुपिड! डिबा नहीं, दिवा. दिवा. अंग्रेजी में उसे दिवा कहते है, बेवकूफ" और जोर-जोर से हंसने लगी वो.
"लेकिन मेरे यहां तो सब डिबा ही बोलते है." राघव बोला.
"डिब्बे लोग डिब्बा ही बोलेंगे न!" उसकी हंसी बडी तेज़ गति से खर्च होने लगी. हंसी की कई इंस्टौलमेंट एक साथ ही जमा कराने लगी राघव को. उसकी एक-एक हंसी चिपकने लगी राघव से.
"प्लीज, इतना मत हंसो. बहुत लोन चढ जायेगा मेरे उपर." राघव बोला. इतने में किसी ने बरखा को आवाज़ दी. फोन पे हल्का ही सुन पाया था वो.
"आ... ई..." कई किलोमीटर तक बरखा ने भी खींचा था इस शब्द को.
"अच्छा मैं रखती हूं. बाद में बात करते है." फोन कट कर दिया बरखा ने. बैलेंस जानने के लिये राघव एसएमएस करने लगा. ताकि जान सके रिश्ता अभी और कितने दिन चलेगा.

Tuesday, November 10, 2009

वक्त की कलाकारी

वक्त की चालबाजी है ये
कहने को तो उम्र बढता है
और दिन गुजरता है रोज़
पर सही माने तो
सब समय की जालसाजी है
चक्कर पे चक्कर है
गोल गोल दुनियां
समय गुजर रहा है
एक एक दिन करके आगे.
वक्त बीतता है कहके
मुन्ने की हाथ में
झुनझुना थमाया गया है
आज रविवार, कल सोमवार,
फिर कल मंगलवार कहके
दिन को गुजरने दिया जाता है
और ऐसे ही वक्त को
मौका मिलता है आगे जाने का.
वक्त आगे निकलता चलता
उम्र बढती जाती तो
शनिवार को खत्म होके
दिन फिर रविवार ही क्यों? आता.
वक्त की कलाकारी है सब.

रिश्ते सब निठल्ले हो गये

रिश्ते सब निठल्ले हो गये
फुल के ये रसगुल्ले हो गये
रंग बिरंगे किस्से थे जो
सब के सब काले हो गये

रिश्ते सब निठल्ले हो गये

मौडर्न घर की मुनिया हो गई
काली-काली चंदनियां हो गई
कट गई खुशियों की पतंग
गम की बल्ले-बल्ले हो गये

रिश्ते सब निठल्ले हो गये

दोस्ती यारी प्यार मोहब्बत
हंसने भर की बातें हो गई
टूट रहा है सब कुछ तेज़
रिश्ते हौले - हौले हो गये

रिश्ते सब निठल्ले हो गये

घर की दुनियां उजड रही है
मकां आग सी फैल रही है
बेबी, बिट्टू, काकी का घर
गुम सारे मोहल्ले हो गये

रिश्ते सब निठल्ले हो गये
फुल के ये रसगुल्ले हो गये



Sunday, November 8, 2009

घर.. अब छोड रहा हूं

मसालों की डिब्बियों और
जंग लगे चुल्हे से शुरु हुआ
सफ़र घर होने का.
एक थाली खरीदा खुद के लिये
एक किसी अचानक आ जाने वाले के लिये
एक तसली, दो तीन चम्मच
दो तीन बडे-बडे डिब्बे
चावल, दाल और आटे के लिये.
दो कूकर
एक गैस सिलिन्डर खरीदा ब्लैक में
दो विम की टिकियां
थोडी सी चीनी, इलायची
दूध का पाउडर
डब्बे-डिब्बियों को सजाके और
माचिस की तिलियों के सहारे
बनाया था
घर
अब छोड रहा हूं.